पूर्व चेतावनी प्रणाली से उत्तर पश्चिमी भारत में मलेरिया महामारी का चार महीने पहले पूर्वानुमान

मार्च 11, 2013
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एक मादा एनोफ़ेलीज़ सटेपैनजी मच्छर, जो पश्चिमी भारत में मलेरिया फैलाता है। फोटो: केदार भिडेएक मादा एनोफ़ेलीज़ सटेपैनजी मच्छर, जो पश्चिमी भारत में मलेरिया फैलाता है। फोटो: केदार भिडे

एन आर्बर – उष्णकटिबंधीय दक्षिण अटलांटिक महासागर की सतह के तापमान का इस्तेमाल कर हजारों मीलों दूर उत्तर – पश्चिमी भारत में चार महीने पूर्व मलेरिया महामारी की सही भविष्यवाणी की जा सकती है, यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की सैद्धांतिक परिस्थिति विज्ञानशास्री और उनके सहयोगियों ने पाया।

जुलाई में सामान्य से अधिक ठंडी उष्णकटिबंधीय दक्षिण अटलांटिक समुद्र सतह के तापमान से मानसून वर्षा और उत्तर पश्चिमी भारत के शुष्क और अर्ध – शुष्क क्षेत्रों (विशाल थार रेगिस्तान सहित)में मलेरिया महामारी, दोनों में वृद्धि हुई । यह निष्कर्ष मर्सिडीज पेसकुअाल और उनके सहयोगी ने ३ मार्च को ऑनलाइन जर्नल नेचर जलवायु परिवर्तन में प्रकाशित किया।

पिछले मलेरिया के प्रकोपों की भविष्यवाणी करने के प्रयास काफी हद तक मानसून सीजन के दौरान संपूर्ण वर्षा पर केंद्रित थे, जिससे बीमारी फैलाने वाले एनोफ़ेलीज़ मच्छरों के संभावित प्रजनन स्थलों का पता चलता था। इस पद्धति से एक महीने पहले प्रकोप का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।

इस नये उपकरण से प्रभावशाली रूप में चेतावनी समय बढ़ जाता है, जिससे इस क्षेत्र में सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के लिये उपचार तैयारियों और अन्य रोग की रोकथाम रणनीतियों बनाई जा सकती है।

उदाहरण के तौर पर इनडोर कीटनाशक छिड़काव का व्यापक रूप से इस्तेमाल करके समय में नियंत्रण किया जा सकता है।

“यह जलवायु सम्बन्ध जो हमने अनावृत किया है मलेरिया के निदेशक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है,” पेसकुअाल ने कहा। “हमें आशा है कि यह निष्कर्ष एक पूर्व चेतावनी प्रणाली के रूप में इस्तेमाल किया जायेगा।”

भारत में लगभग खत्म होने के बाद, मलेरिया फिर से १९७० दशक के बाद उभरा। अनुमान है कि भारत में वार्षिक ९ लाख के आसपास लोग मलेरिया के चपेट में अाते है।

इस महामारी के रूप में मलेरिया का भौगोलिक वितरण मुख्य रूप से सीमांत शुष्क उत्तर पश्चिमी भारत जैसे स्थानों पर होता हैं जहां समय-समय पर पर्यावरण की स्थिति एनोफ़ेलीज़ मच्छरों को बनाए रखने के लिए उपयुक्त होती हैं।

उत्तर पश्चिम भारत के कच्छ जिले का शुष्क परिदृश्य जहां मलेरिया महामारी मानसून की बारिश, और क्षेत्रीय वर्षा के प्रभाव के तहत होता हैं, अौर उष्णकटिबंधीय दक्षिण अटलांटिक महासागर में समुद्री सतह के तापमान के साथ जुड़ा हुआ है। फोटो: मर्सिडीज पेसकुअालउत्तर पश्चिम भारत के कच्छ जिले का शुष्क परिदृश्य जहां मलेरिया महामारी मानसून की बारिश, और क्षेत्रीय वर्षा के प्रभाव के तहत होता हैं, अौर उष्णकटिबंधीय दक्षिण अटलांटिक महासागर में समुद्री सतह के तापमान के साथ जुड़ा हुआ है। फोटो: मर्सिडीज पेसकुअालमलेरिया के खतरे के लिये अधिक समय-सीमा और सटीक भविष्यवाणी की इच्छा से प्रेरित होकर, पेसकुअाल और उसके सहयोगियों ने उत्तर पश्चिमी भारत में मलेरिया घटना के महामारी के रिकॉर्ड का विश्लेषण किया और सांख्यिकीय और कंप्यूटर जलवायु मॉडल का इस्तेमाल कर समुद्र की सतह के तापमान, उत्तर पश्चिम में मानसून की बारिश और वहाँ मलेरिया महामारी के बीच संभावित संबंध का परीक्षण किया।

ये कहते हैं कि अधिकतर उत्तर पश्चिमी भारत में मलेरिया महामारी, अक्टूबर या नवंबर में चोटी पर होती है, जब पूर्ववर्ती गर्मियों में मानसून के मौसम में वर्षा आवश्यक सीमा के बराबर या बारिश संभाव्यतः से अधिक होती है जो एनोफ़ेलीज़ मच्छरों के विकास मे सहायता करती है।

शोधकर्ताओं ने वैश्विक समुद्र की सतह के तापमान और उत्तर पश्चिमी भारत के बीच मलेरिया महामारी संबंध को देखा। उनके अनुसार अफ्रीका के पश्चिमी अोर उष्णकटिबंधीय दक्षिण अटलांटिक, जहां सामान्य से अधिक ठंडी तापमान से उत्तर पश्चिमी भारत में मलेरिया और मानसून वर्षा दोनो में वृद्धि हुई।

जुलाई महीने में दक्षिण अटलांटिक महासागर की सतह के तापमान भारत में मलेरिया प्रकोपों के भविष्यवाणी में सटीक साबित हुये। १९८५ और २००६ के बीच इस क्षेत्र में मलेरिया महामारी की समीक्षा कर शोधकर्ताओं ने पाया कि समुद्री तापमान से ११ महामारी साल में से नौ बार सही और गैर महामारी साल में १५ साल मे से १२ बार सही भविष्यवाणी की। भारत मे हाल के दशकों में इस क्षेत्र और समय के लिए उष्णकटिबंधीय दक्षिण अटलांटिक बारिश, और वर्षा के माध्यम से मलेरिया पर प्रमुख भूमिका निभाते हैं ,” पेसकुअाल ने कहा।

मलेरिया प्लाज्मोडियम परजीवी से, जो संक्रमित मच्छरों के काटने से, फैलते है। शरीर में परजीवी कलेजे में वृद्धि कर लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित करते हैं।

इस पेपर में पेसकुअाल के सह लेखक महासागर भूमि वायुमंडल अध्ययन के बी ए केश, नई दिल्ली में राष्ट्रीय मलेरिया अनुसंधान संस्थान के आर धीमान, लंदन स्वच्छता और ट्रॉपिकल मेडिसिन स्कूल के एम.जे. बौमा, यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन पारिस्थितिकीय और विकासवादी जीवविज्ञान विभाग के ए बैजं थे।

इस काम को नई दिल्ली के राष्ट्रीय मलेरिया अनुसंधान संस्थान, यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन ग्राहम स्थिरता संस्थान, और अमेरिका के राष्ट्रीय समुद्रीय और वायुमंडलीय प्रशासन, राष्ट्रीय विज्ञान फाउंडेशन और नासा से अनुदान मिला। राष्ट्रीय वायुमंडलीय अनुसंधान केंद्र ने उच्च प्रदर्शन अभिकलन सहायता प्रदान की है।